25-01-69 ओम शान्ति अव्यक्त बापदादा मधुबन

"समर्पण की ऊँची स्टेज – श्वांसों श्वांस स्मृति"

अव्यक्त स्थिति में स्थित होकर अव्यक्त को व्यक्त में देखो। आज एक प्रश्न पूछ रहे हैं। सर्व समर्पण बने हो? (सर्व समर्पण हैं ही) यह सभी का विचार है या और कोई का कोई और विचार है? सर्व समर्पण किसको कहा जाता है? सर्व में यह देह का भान भी आता है। देह ले लेंगे तो देनी भी पड़ेगी। लेकिन देह का भान तोड़कर समर्पण बनना है। आप क्या समझते हो? देह के अभिमान से भी सम्पूर्ण समर्पण बने हो? मर गये हो वा मरते रहते हो? देह के सम्बन्ध और मन के संकल्पों से भी तुम देही हो। यह देह का अभिमान बिल्कुल ही टूट जाए तब कहा जाए सर्व समर्पणमय जीवन। जो सर्व त्यागी, सर्व समर्पण जीवन वाला होगा उनकी ही सम्पूर्ण अवस्था गाई जायेगी। और जब सम्पूर्ण बन जायेंगे तो साथ जायेंगे। आपने शुरू में संकल्प किया था ना कि बाबा जायेंगे तो हम भी साथ जायेंगे। फिर ऐसा क्यों नहीं किया? यह भी एक स्नेह है। और संग तोड़ एक संग जोड़ने की यह चैन है जो अन्त समय की निशानी है। जब कहा था तो क्यों नहीं शरीर छोड़ा? छोड़ सकते हो? अभी छूट भी नहीं सकता। क्योंकि जब तक हिसाब-किताब है, अपने शरीर से तब तक छूट नहीं सकता। योग से या भोग से हिसाब-किताब चुक्तू जरूर करना पड़ता है। कोई भी कड़ा हिसाब-किताब रहा हुआ है तो यह शरीर रहेगा। छूट नहीं सकता। वैसे तो समर्पण हो ही लेकिन अब समर्पण की स्टेज ऊँची हो गई है। समर्पण उसको कहा जाता है जो श्वांसों श्वांस स्मृति में रहे। एक भी श्वांस विस्मृति का न हो। हर श्वांस में स्मृति रहे और ऐसे जो होंगे उनकी निशानी क्या है? उनके चेहरे पर क्या नजर आयेगा? क्या उनके मुख पर होगा, मालूम है?(हर्षितमुख) हर्षितमुखता के सिवाए और भी कुछ होगा? जो जितना सहनशील होगा उनमें उतनी शक्ति बढ़ेगी। जो श्वांसों श्वांस स्मृति में रहता होगा उसमें सहनशी- लता का गुण जरूर होगा और सहनशील होने के कारण एक तो हर्षित और शक्ति दिखाई देगी। उनके चेहरे पर निर्बलता नहीं। यह जो कभी-कभी मुख से निकलता है, कैसे करें, क्या होगा, यह जो शब्द निर्बलता के हैं, वह नहीं निकलने चाहिए। जब मन में आता है तो मुख पर आता है। परन्तु मन में नहीं आना चाहिए। मनमनाभव मध्याजी भव। मनमनाभव का अर्थ बहुत गुह्य है। मन, बिल्कुल जैसे ड्रामा का सेकेण्ड बाई सेकेण्ड जिस रीति से, जैसा चलता है, उसी के साथ-साथ मन की स्थिति ऐसे ही ड्रामा की पटरी पर सीधी चलती रहे। जरा भी हिले नहीं। चाहे संकल्प से, चाहे वाणी से। ऐसी अवस्था हो, ड्रामा की पटरी पर चल रहे हो। परन्तु कभी- कभी रुक जाते हो। मुख कभी हिल जाता है। मन की स्थिति हिलती है - फिर आप पकड़ते हो। यह भी जैसे एक दाग हो जाता है। अच्छा- फिर भी एक बात अब तक भी कुछ वाणी तक आई है, प्रैक्टिकल में नहीं आई है। कौन सी बात वाणी तक आई है प्रैक्टिकल नहीं? यही ड्रामा की ढाल जो सुनाई। लेकिन और बात भी बता रहे थे। वह यह है जैसे अब समय नजदीक है, वैसे समय के अनुसार जो अन्तर्मुखता की अवस्था, वाणी से परे, अन्तर्मुख होकर, कर्मणा में अव्यक्त स्थिति में रहकर धारण करने की अवस्था दिखाई देनी चाहिए, वह कुछ अभी भी कम है। कारोबार भी चले और यह स्थिति भी रहे। यह दोनों ही इक्ट्ठा एक समान रहे। अभी इसमें कमी है। अब साकार तो अव्यक्त स्थिति स्वरूप में स्थित है। लेकिन आप बच्चे भी अव्यक्त स्थिति में स्थित होंगे तो अव्यक्त मुलाकात का अलौकिक अनुभव कर सकते हो। एक मुख्य बात और भी है, वर्तमान समय ध्यान पर देते हैं, जो तुम्हारे में होनी चाहिए। वह कौन सी? कोई को आता है? जो मुख्य साकार रूप में भी कहते थे - अमृतवेले उठना। अमृतवेले का वायुमण्डल ऐसा ही रहेगा। साकार में अमृतवेले बच्चों से दूर होते भी मुलाकात करते थे। लेकिन अभी जब अमृतवेले चक्र लगाने बाबा आते हैं तो वह वायुमण्डल देखा नहीं है। क्यों थक गये? इस अमृ- तवेले के अलौकिक अनुभव में थकावट दूर हो जाती है। परन्तु यह कमी देखने में आती है। यह बापदादा की शुभ इच्छा है कि जल्दी से जल्दी इस अव्यक्त स्थिति का हर एक बच्चा अनुभव करे। वैसे तो आप जब साकार से साकार रीति से मिलते थे तो आप की आकारी स्थिति बन जाती थी। अब जितना-जितना अव्यक्त आकारी स्थिति में स्थित होंगे उतना ही अलौकिक अनुभव करेंगे।